उन दृश्यों के कारण मैं उत्तेजित हो कर चाची के शरीर को मसलने के लिए विचलित हो उठा और मैं मेज़ से उठ कर रसोई में गया।
चाची को रसोई में नहीं देख कर मैंने सारे घर में ढूंढा और अंत में उन्हें दादाजी और दादीजी के कमरे में उनका सामान बांधते हुए पाया।
यह देख मैंने दादाजी से पूछा- यह सामान क्यों बाँध रहे हैं? क्या कहीं बाहर जा रहे हैं?
दादाजी ने उत्तर दिया- हाँ विवेक, बहुत दिनों से तेरी दादी जिद कर रही थी इसलिए आज उसकी इच्छा पूरी करने के लिए हम दोनों तीर्थ यात्रा के लिए जा रहे हैं।
मैंने उनसे पूछा- दादाजी, आप ने इस बारे में पहले तो कोई चर्चा नहीं करी थी। आज अचानक ही यह यात्रा का कार्यक्रम कैसे बन गया?
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तब दादाजी ने बताया- हाँ, हमारी यात्रा का यह कार्यक्रम अचानक ही बन गया, आज सुबह जब सैर करने गए तब मुखिया ने बताया कि दोपहर को ही वे परिवार सहित एक छोटी बस में तीर्थ यात्रा के लिए जा रहे हैं। उनके एक सम्बन्धी ने यात्रा पर जाने से मना कर दिया था इसलिए उन्होंने हमें उनके साथ चलने के आग्रह किया है।
तभी चाची उनका सामान बाँध कर खड़ी हुई और मुझे कहा- विवेक, जल्दी से तैयार हो कर दादाजी और दादीजी को मुखिया के घर पर बस में बिठा कर आओ।
फिर चाची दादाजी और दादीजी से बोली- मैंने आप दोनों के कपड़े आदि और हर आवश्यकता का सामान इस अटेची और बैग में रख दिया है। आप एक बार इन्हें देख ले और अगर कुछ रह गया हो तो बता दीजियेगा मैं वह भी रख दूंगी। आप दोनों के बस में पहन कर जाने वाले कपड़े भी निकाल दिए हैं इसलिए अब आप कपड़े भी बदल तैयार हो जाइए। तब तक मैं आपके खाने पीने के सामान बाँधने की व्यवस्था भी कर देती हूँ।
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इसके बाद मैं चाची के साथ रसोई में आ गया और जब मैंने उनको बाहुपाश में लेकर उनके होंठों का चुम्बन लेने की कोशिश की तब उन्होंने मुझे रोक दिया और कठोरता से कहा- विवेक, यह समय इस काम के लिए नहीं है। अभी मेरा बहुत काम पड़ा है और मेरे पास समय भी बहुत कम है इसलिए तुम तैयार हो कर दादाजी और दादीजी को छोड़ आओ।
चाची की बात सुन कर मुझे उन पर गुस्सा तो आया लेकिन अपने पर नियंत्रण करके मैं तैयार होने के लिए ऊपर अपने कमरे में चला गया।
पन्द्रह मिनट के बाद जब मैं तैयार हो कर नीचे पहुँचा तो देखा दादाजी तो तैयार ही चुके थे लेकिन दादीजी तैयार हो रही थी।
जब मैं रसोई में गया तो देखा वहाँ चाची खाना बनाने में बहुत व्यस्त थी और मुझे वहाँ देख कर सिर्फ हल्का सा मुस्करा दी और बोली– विवेक, बैठक की अलमारी में जीप की चाबी रखी है। उसे ले कर जीप स्टार्ट कर के मुख्य द्वार पर ले आओ तथा उसमें दादाजी एवं दादीजी का सारा समान रख दो।
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मैं चाची के कहे अनुसार जीप को घर के मुख्य द्वार पर खड़ा करके जब उसमें दादाजी एवं दादीजी का सारा सामान रख रहा था तभी दादाजी, दादीजी और चाची भी आ गए।
मैंने दादाजी और दादाजी को जीप में बिठा कर मुखिया जी के घर छोड़ा और उनकी बस के जाने के बाद ही वहाँ से घर वापिस लौटा।
जीप को यथा स्थान पर रख कर मैं मुख्य द्वार पर पहुँचा तो दरवाज़े बंद पाया और पाँच मिनट तक खटखटाने के बाद भी जब किसी ने नहीं खोला तब मैंने उसे जोर से धकेला।
धक्का लगते ही दरवाज़ा तो खुल गया लेकिन चाची को अन्दर न देख कर उन्हें पुकारने जा ही रहा था कि मुझे गुसलखाने में से नल चलने की ध्वनि सुनाई दी।
मैं समझ गया कि चाची रसोई का काम समाप्त करके नहा रही होगी इसलिए मुख्य द्वार को बंद तो कर दिया लेकिन सांकल नहीं लगाई ताकि मैं उसे धकेल कर घर के अंदर आ सकूँ।
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मैंने मख्य द्वार को अन्दर से अच्छी तरह बंद करके उसमे सांकल लगा दी और गुसलखाने की ओर बढ़ गया।
जब मैंने गुसलखाने के खुले दरवाज़े में से झाँका तो वहाँ चाची को सिर्फ पैंटी पहने हुए कपड़े धोते हुए पाया।
मुझे देखते ही चाची ने दादाजी और दादीजी के बारे में पूछा तो मैंने बता दिया- मुखिया जी से मिलवा कर उन्हें बस में बिठा दिया था और बस के विदा होने के बाद ही वहाँ से वापिस लौटा हूँ।
चाची के पास मैले कपड़ों का ढेर देख कर मैंने उनसे पूछ लिया- चाची, अभी तो धोने के लिए बहुत कपड़े पड़े हैं, क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ?
चाची हंसते हुए बोली- जा जा अपना काम कर… बड़ा आया कपड़े धोने वाला! क्या तुझे कपड़े धोने आते भी हैं?
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